श्री बालाजी (सालासरजी) की महिमा
एक कथा के अनुसार, राजस्थान के नागौर जिले के एक छोटे से गांव असोतामें संवत 1811में शनिवार के दिन एक किसान का हल खेत की जुताई करते समय रुक गया। दरअसल, हल किसी शिला से टकरा गया था। वह तिथि श्रावण शुक्ल नवमी थी ।
उस किसान ने उस स्थान की खुदाई की, तो मिट्टी और बालू से ढंकी हनुमान जी की दो प्रतिमा निकली। किसान और उसकी पत्नी ने इसे साफ किया और घटना की जानकारी गांव के लोगों को दी। ऐसा माना जाता है कि उस रात असोताके जमींदार ने रात में स्वप्न देखा कि हनुमानजी कह रहे हैं कि मुझे असोता से ले जाकर सालासार में स्थापित कर दो। ठीक उसी रात सालासर के एक हनुमान-भक्त मोहनदास को भी हनुमान जी ने स्वप्न दिया कि मैं असोतामें हूं, मुझे सालासर लाकर स्थापित करो। अगली सुबह मोहनदासने अपना सपना असोता के जमींदार को बताया। यह सुनकर जमींदार को आश्चर्य हुआ और उसने श्री बालाजी[हनुमान जी] का आदेश मानकर प्रतिमा को सालासर में स्थापित करा दिया। धीरे-धीरे यह छोटा सा कस्बा सालासर धाम के नाम से विख्यात हो गया। दूसरी मूर्ति को इस स्थान से 25 किलोमीटर दूर पाबोलाम (भरतगढ़) में स्थापित कर दिया गया |
सालासर धाम के मंदिर की सेवा, पूजा तथा आय-व्यय संबंधी सभी अधिकार स्थानीय दायमा ब्राह्मणों को ही है, जो श्रीमोहनदासजी के भानजे उदयरामजी के वंशज हैं।श्रीमोहनदासजी ही इस मंदिर के संस्थापक थे। ये बड़े वचनसिद्ध महात्मा थे। असल में श्रीमोहनदासजी सालासर से लगभग सोलह मील दूर स्थित रूल्याणी ग्राम के, निवासी थे। इनके पिताश्री का नाम लच्छीरामजी था। लच्छीरामजी केछ: पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्री का नाम कानीबाई था, मोहनदासजी सबसे छोटे थे। कानीबाई का विवाह सालासर ग्रामके निवासी श्रीसुखरामजी के साथ हुआ था, पर विवाह के पांच साल बाद ही (उदयराम नामक पुत्र प्राप्ति के बाद) सुखरामजी का देहांत हो गया। तब कानीबाई अपने पुत्र उदयरामजी सहित अपने पीहर रूल्याणी चली गयींी, किंतु कुछ पारिवारिक परिस्थितियों के कारण अधिक समय तक वहां न रह सकीं और सालासर वापस आ गयीं। यह सोचकर कि `विधवा बहन कैसे अकेली जीवन-निर्वाह करेगी', मोहनदासजी भी उसके साथ सालासर चले आये। इस प्रकार कानीबाई, मोहनदासजी और उदयरामजी साथ-साथ रहने लगे। श्रीमोहनदासजी आरंभ से ही विरक्त वृत्तिवाले व्यक्ति थे और श्रीहनुमानजी महाराज को अपना इष्टदेव मानकर उनकी पूजा करते थे। यही कारण था कि यदि वे किसी को कोई बात कह देते तो वह अवश्य सत्य हो जाती ।
लोककथन के अनुसार श्रीबालाजी और मोहनदासजी आपस में बातें भी किया करते थे। श्री बालाजी[हनुमान जी] के परम भक्त मोहनदासजी तो सदैव भक्तिभाव में ही डूबे रहते थे, अत: सेवा-पूजा का कार्य उदयरामजी करते थे। उदयरामजी को मोहनदासजी ने एक चोगा दिया था, पर उसे पहनने से मनाकर पैरों के नीचे रख लेने को कहा । तभी से पूजा में यह पैरों के नीचे रखा जाता है। मंदिर में अखंड ज्योति (दीप) है, जो उसी समय से जल रही है। मंदिर के बाहर धूणां है। मंदिर में मोहनदासजी के पहनने के कड़े भी रखे हुए हैं। ऐसा बताते हैं कि यहां मोहनदासजी के रखे हुए दो कोठले थे, जिनमें कभी समाप्त न होनेवाला अनाज भरा रहता था, पर मोहनदासजी की आज्ञा थी कि इनको खोलकर कोई न देखें। बाद में किसी ने इस आज्ञा का उल्लंघन कर दिया, जिससे कोठलों की वह चमत्कारिक स्थिति समाप्त हो गयी।इस प्रकार यह श्रीसालासर बालाजी का मंदिर लोक-विख्यात है, जिसमें श्रीबालाजी की भव्य प्रतिमा सोने के सिंहासन पर विराजमान है। सिंहासन के ऊपरी भाग में श्रीराम-दरबार है तथा निचले भाग में श्रीरामचरणों में हनुमानजी विराजमान हैं। मंदिर के चौक में एक जाल का वृक्ष है, जिसमें लोग अपनी मनोकांक्षा की पूर्ति के लिए नारियल बांध देते हैं ।
सालासर धाम के मंदिर परिसर में हनुमान-भक्त मोहनदास और कानी दादी की समाधि है । मंदिर के सामने के दरवाजे से थोड़ी दूर पर ही मोहनदासजी की समाधि है, जहां कानीबाई की मृत्यु के बाद उन्होंने जीवित-समाधि ले ली थी। पास ही कानीबाई की भी समाधि है । यहां मोहनदासजी के जलाए गए अग्नि कुंड की धूनी आज भी जल रही है। यहाँ आने वाले भक्त इस अग्नि कुंड की विभूति अपने साथ ले जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि यह विभूति भक्तों के सारे कष्टों को दूर कर देती है । पिछले बीस वर्षो से यहां निरंतर पवित्र रामायण का अखंड कीर्तन हो रहा है, जिसमें यहां आने वाला हर भक्त शामिल होता है और बालाजीके प्रति अपनी आस्था प्रकट करता है। प्रत्येक भाद्रपद, आश्विन, चैत्र तथा वैशाख की पूर्णिमा के दिन प्रतिवर्ष यहां बहुत विशाल मेले का आयोज़न होता है । इस विशाल मेले में देश-विदेश के लाखों की संख्या में श्रृद्धालु अपने आराध्य श्री बालाजी (सालासरजी) के दर्शनों से लाभान्वित होते हैं |
उस किसान ने उस स्थान की खुदाई की, तो मिट्टी और बालू से ढंकी हनुमान जी की दो प्रतिमा निकली। किसान और उसकी पत्नी ने इसे साफ किया और घटना की जानकारी गांव के लोगों को दी। ऐसा माना जाता है कि उस रात असोताके जमींदार ने रात में स्वप्न देखा कि हनुमानजी कह रहे हैं कि मुझे असोता से ले जाकर सालासार में स्थापित कर दो। ठीक उसी रात सालासर के एक हनुमान-भक्त मोहनदास को भी हनुमान जी ने स्वप्न दिया कि मैं असोतामें हूं, मुझे सालासर लाकर स्थापित करो। अगली सुबह मोहनदासने अपना सपना असोता के जमींदार को बताया। यह सुनकर जमींदार को आश्चर्य हुआ और उसने श्री बालाजी[हनुमान जी] का आदेश मानकर प्रतिमा को सालासर में स्थापित करा दिया। धीरे-धीरे यह छोटा सा कस्बा सालासर धाम के नाम से विख्यात हो गया। दूसरी मूर्ति को इस स्थान से 25 किलोमीटर दूर पाबोलाम (भरतगढ़) में स्थापित कर दिया गया |
सालासर धाम के मंदिर की सेवा, पूजा तथा आय-व्यय संबंधी सभी अधिकार स्थानीय दायमा ब्राह्मणों को ही है, जो श्रीमोहनदासजी के भानजे उदयरामजी के वंशज हैं।श्रीमोहनदासजी ही इस मंदिर के संस्थापक थे। ये बड़े वचनसिद्ध महात्मा थे। असल में श्रीमोहनदासजी सालासर से लगभग सोलह मील दूर स्थित रूल्याणी ग्राम के, निवासी थे। इनके पिताश्री का नाम लच्छीरामजी था। लच्छीरामजी केछ: पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्री का नाम कानीबाई था, मोहनदासजी सबसे छोटे थे। कानीबाई का विवाह सालासर ग्रामके निवासी श्रीसुखरामजी के साथ हुआ था, पर विवाह के पांच साल बाद ही (उदयराम नामक पुत्र प्राप्ति के बाद) सुखरामजी का देहांत हो गया। तब कानीबाई अपने पुत्र उदयरामजी सहित अपने पीहर रूल्याणी चली गयींी, किंतु कुछ पारिवारिक परिस्थितियों के कारण अधिक समय तक वहां न रह सकीं और सालासर वापस आ गयीं। यह सोचकर कि `विधवा बहन कैसे अकेली जीवन-निर्वाह करेगी', मोहनदासजी भी उसके साथ सालासर चले आये। इस प्रकार कानीबाई, मोहनदासजी और उदयरामजी साथ-साथ रहने लगे। श्रीमोहनदासजी आरंभ से ही विरक्त वृत्तिवाले व्यक्ति थे और श्रीहनुमानजी महाराज को अपना इष्टदेव मानकर उनकी पूजा करते थे। यही कारण था कि यदि वे किसी को कोई बात कह देते तो वह अवश्य सत्य हो जाती ।
लोककथन के अनुसार श्रीबालाजी और मोहनदासजी आपस में बातें भी किया करते थे। श्री बालाजी[हनुमान जी] के परम भक्त मोहनदासजी तो सदैव भक्तिभाव में ही डूबे रहते थे, अत: सेवा-पूजा का कार्य उदयरामजी करते थे। उदयरामजी को मोहनदासजी ने एक चोगा दिया था, पर उसे पहनने से मनाकर पैरों के नीचे रख लेने को कहा । तभी से पूजा में यह पैरों के नीचे रखा जाता है। मंदिर में अखंड ज्योति (दीप) है, जो उसी समय से जल रही है। मंदिर के बाहर धूणां है। मंदिर में मोहनदासजी के पहनने के कड़े भी रखे हुए हैं। ऐसा बताते हैं कि यहां मोहनदासजी के रखे हुए दो कोठले थे, जिनमें कभी समाप्त न होनेवाला अनाज भरा रहता था, पर मोहनदासजी की आज्ञा थी कि इनको खोलकर कोई न देखें। बाद में किसी ने इस आज्ञा का उल्लंघन कर दिया, जिससे कोठलों की वह चमत्कारिक स्थिति समाप्त हो गयी।इस प्रकार यह श्रीसालासर बालाजी का मंदिर लोक-विख्यात है, जिसमें श्रीबालाजी की भव्य प्रतिमा सोने के सिंहासन पर विराजमान है। सिंहासन के ऊपरी भाग में श्रीराम-दरबार है तथा निचले भाग में श्रीरामचरणों में हनुमानजी विराजमान हैं। मंदिर के चौक में एक जाल का वृक्ष है, जिसमें लोग अपनी मनोकांक्षा की पूर्ति के लिए नारियल बांध देते हैं ।
सालासर धाम के मंदिर परिसर में हनुमान-भक्त मोहनदास और कानी दादी की समाधि है । मंदिर के सामने के दरवाजे से थोड़ी दूर पर ही मोहनदासजी की समाधि है, जहां कानीबाई की मृत्यु के बाद उन्होंने जीवित-समाधि ले ली थी। पास ही कानीबाई की भी समाधि है । यहां मोहनदासजी के जलाए गए अग्नि कुंड की धूनी आज भी जल रही है। यहाँ आने वाले भक्त इस अग्नि कुंड की विभूति अपने साथ ले जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि यह विभूति भक्तों के सारे कष्टों को दूर कर देती है । पिछले बीस वर्षो से यहां निरंतर पवित्र रामायण का अखंड कीर्तन हो रहा है, जिसमें यहां आने वाला हर भक्त शामिल होता है और बालाजीके प्रति अपनी आस्था प्रकट करता है। प्रत्येक भाद्रपद, आश्विन, चैत्र तथा वैशाख की पूर्णिमा के दिन प्रतिवर्ष यहां बहुत विशाल मेले का आयोज़न होता है । इस विशाल मेले में देश-विदेश के लाखों की संख्या में श्रृद्धालु अपने आराध्य श्री बालाजी (सालासरजी) के दर्शनों से लाभान्वित होते हैं |
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