Thursday, 9 April 2015

पार्वती का तप और विवाह

By flipkart   Posted at  05:18   No comments

                              पार्वती का तप और विवाह 

 

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 यह भाग देवी कथाओं में पहले भी शेयर कर चुकी हूँ 
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देवी रति को कामदेव के प्रद्युम्न रूप में लौटने के बारे में बता कर शिव जी वहां से अंतर्ध्यान हो गए । पार्वती बहुत दुखी हुईं और उन्होंने शिव जी को प्राप्त करने के लिए पंचाक्षरी नाम जाप के साथ तपस्या करना शुरू किया । माता ने उन्हें "उमा" कह कर रोका- जिससे उनका नाम उमा हुआ ।

उमा ने बड़ी कठिन तपस्या की , पहले भोजन त्यागा, फिर फल आदि भी त्याग दिए और बाद में पत्र पुष्प भी । पर्ण भी त्याग देने से उनका नाjम "अपर्णा"हुआ । 3 हज़ार साल से अधिक होने पर भी शिव प्रसन्न न हुए, तब पार्वती जी और भी लगन के साथ अपनी साधना में लग गयीं ।

उनके तप ताप के तेज से पृथ्वी संतप्त हो उठी और प्राणियों को अत्यंत पीड़ा होने लगी  । उधर ताड़कासुर ने सब और अपना राज्य विस्तारित किया और इन्द्रासन पर भी आसीन हो गया । तब देवगण विष्णु जी और ब्रह्मा जी सहित शिव जी के पास गये और पार्वती से ब्याह करने को कहा, । शिव जी ने कहा कि  मैं योगी हूँ, मुझे विवाह में कोई रूचि नहीं, और फिर से ध्यान मग्न हो गए । देवताओं ने उन्हें फिर पुकारा और धरा पर मची हाहाकार से मुक्ति के लिए उनसे तप स्वीकारने की प्रार्थना की । तब शिव जी ने कहा कि यद्यपि विवाह में हमारे रूचि नहीं है, तथापि आओ सब के लिए हम यह स्वीकार कर सकते हैं , आप सब प्रसन्न मन से प्रस्थान कीजिये ।

देवताओं के जाने के बाद शिव जी ने सप्तर्षियों से काली के प्रेम और समर्पण की परीक्षा लेने को कहा, जिन्होंने उमा के आगे आ कर शिव जी के अवगुणों की बातें  कहीं। भवानी ने तनिक भी विचलित हुए बिना अपनी तपस्या जारी राखी ।

फिर शिव जी खुद वृद्ध ब्राह्मण वेश में उनके पास आये और माँ ने उनका आदर सत्कार किया । उन्होंने पूछा की हे सुन्दर राजकुमारी, आप यह किस उद्देश्य से इतना कठोर तप कर रही हैं । उमा के कारण बताने पर वे शिव जी की बड़ी भर्त्सना करने लगे और कहा की ऐसे वर से विवाह करने से तो अच्छा हो की तुम कुंवारी ही रहो । शिव जी की बुराई पर माता भवानी क्रोधित हो गयीं और ब्राह्मण को वहां से जाने का आदेश दिया, अपनी सखी से कहा कि इसे यहाँ से दूर रखो और चुप रखो  । जितना पाप श्री महादेव की बुराई करने में है, ऐसा ही पाप उसे सुनने में भी है । मैं लज्जित हूँ कि मैंने इस शिवद्रोही का स्वागत सत्कार किया, और यह कह कर शिवा वहां से जाने लगीं  । इस पर शिव अपने निज रूप में आये और शिव का सारा क्लेश जाता रहा  । शिव जी ने कहा कि हे देवी, आपसे हम अति प्रसन्न हैं, और आपसे असीमित प्रेम भी करते हैं । आपके बिना अब हम भी नहीं रहना चाहते। आपको जो चाहिए है, मांग लीजिये । तब गिरिजा ने उनसे पिता हिमवान से अपना हाथ मांगने को कहा ।

शिव जी बोले , की मांगने में समर्थ पुरुष का तेज घट जाता है । जैसे ही "देहि" (मांगने के लिए संस्कृत शब्द - दो / दीजिये) शब्द मुंह से निकले, पुरुष भिक्षुक की तरह हीन हो जाता है  । किन्तु माता भवानी ने कहा कि पिता से पुत्री को स्त्री रूप में मांगना पुरुष का अपनी स्व प्रकृति को प्राप्त करने का कर्म है, और शास्त्र सम्मत है ।  तब शिव उन्हें पिता के घर प्रसन्न मन से लौट जाने को कह कर चले गए और गिरिजा प्रसन्नचित्त से घर आ गयीं ।

शिव नट रूप में डमरू लेकर हिमवान के घर आये और अत्यंत दिव्य नृत्य किया । अति प्रसन्न होकर राजा रानी ने उन्हें जो चाहें लेने को कहा, तो उन्होंने देवी काली का नाम लिया । राजा रानी नट की उद्दंडता पर अति क्रोधित हुए और सैनिकों से उसे बाहर निकालने को कहा, किन्तु उनके दिव्य तेज से कोई भी उनके सम्मुख न पहुँच सका  । नटराज ने फिर उमा का हाथ स्वयं को सौंपने को कहा, किन्तु मैना और हिमवान के न करने पर वे वहां से अंतर्ध्यान हो गए ।

फिर गिरिजेश वैष्णव ब्राह्मण रूप में हिमवान के घर गए और शिव जी की इतनी तीव्र निंदा की कि मैना और हिमवान ने कहा कि हम अपनी बेटी को कुंवारी भले ही रखेंगे, किन्तु ऐसे वर को उसे न सौंपेंगे । बाद में शंकर जी की प्रेरणा से सप्तर्षि वहां गए और हिमवान को मनाया । मैना देवी फिर भी न मानें, तो उन्हें अरुंधती जी ने समझाया (अरुंधती जी ब्रह्मा पुत्री संध्या हैं, जो कामदेव के साथ ही ब्रह्मा के ह्रदय में से उत्पन्न हुईं थीं  । ब्रह्मा की अनुमति पा कर कामदेव ने बाण संधान किया, जिससे सभा में उपस्थित सभी देवों की दृष्टि काम्पूर्ण हो उठी और संध्या पर सकाम दृष्टि पडी । इससे संध्या का मन व्यथित हुआ और वे पित्राज्ञा से श्री वशिष्ठ जी से मन्त्र ले कर तपस्या को चली गयीं । संध्या को सूर्य ने प्रातः और सायं संध्या में विभक्त किया था । बाद में वे तपस्या करने वे चंद्रभाग पर्वत पर चली गयीं, जहां से चंद्रभागा नदी उत्पन्न हुईं । अगले जन्म में वे ऋषि मेधातिथि की पुत्री अरुंधती हुईं, और उनका ब्याह वशिष्ठ जी से हुआ )

बरात आई तो शिव जी ने मैना जी के अहंकार को नष्ट करने के लिए इतना भयंकर वेश धारण किया कि मैना उन्हें देख कर बेहोश हो गयीं  । चेतना लौटने पर बेटी से कहा कि ऐसे कुलक्षणी अशुभ से मैं तुम्हे नहीं बांधूंगी ।
वे अपनी बेटी उमा, नारद, सप्तर्षियों, सबको अपशब्द कहने लगीं की धिक्कार है कि मेरी कोमलांगी पुत्री को ऐसे अमंगल दूल्हा चुना गया । उसी समय मेरा गर्भ नष्ट हो जाता तो भला होता । मैं उमा को अपने हाथों से विष दे दूँगी परन्तु इस से उसे न ब्याहूंगी । नारद ने उन्हें समझाया की शिव रूप सर्व शुभ है , यह रूप तो उन्होंने कौतुकवश धारण किया है । किन्तु वे न मानीं और नारद को कहा कि तुम दुष्टों और अधर्मियों के शिरोमणि हो कि तुमने हमारी बेटी का जीवन खराब कर दिया । देवताओं और सप्तर्षियों के समझाने पर भी मैना अपनी बात पर अड़ी रहीं । हिमवान स्वयं भी समझाने गए तो मैना ने कहा की वे सहर्ष बेटी को गले में रस्सी बाँध कर पर्वत से लटका दें , किन्तु वे उसका ब्याह शिव से न होने देंगी ।

अब पार्वती ने कहा कि "हे माते, तुम्हारी वाणी और बुद्धि तो सदैव मंगलकारी हुआ करती थी । आज यह धर्म का अवलंब न कर भटक गयी है । हे माँ, रूद्र सर्वोत्पत्ति के कारण और साक्षात इश्वर हैं । मनोहारी रूप धारी, कल्याणकारी महेश्वर परमेश्वर हैं । विष्णु ब्रह्मा द्वारा सेवित हैं और देवता गण इनकी आराधना करते हैं । ये निर्विकार, अविनाशी और सनातन हैं । शिव जी के ही कारण आज आपके द्वार पर ब्रह्मा विष्णु और समस्त देवगण और ऋषि मुनि जन पधारे हैं । मैं मन वचन कर्म से उन्हें पति मान चुकी हूँ, और आप मेरा विवाह न भी करेंगे, तो भी मैं आजीवन उनकी ही पत्नी बन कर कुंवारी रहूंगी " पुत्री की इन बातों से मैना देवी अति क्रोधित हुईं और उसे (निर्लज्जता के लिए ) डांटने लगीं । विष्णु जी भी मैना के पास आये और उन्हें समझाया , कि पितरों की कन्या और शैलप्रिया होने से उम्का सम्बन्ध ब्रह्मा जी के कुल से है । विष्णु जी के समझाने से मैना का आवेश कम तो हुआ, किन्तु उन्होंने जिद न छोड़ी । किन्तु जब शिव जी ने अपनी माया हटाई, तो मैना ने उन्हें उत्तम स्वीकार किया और नारायण से प्रार्थन की कि शिव जी से निज रूप में आने को कहें । तब शिव अपने स्वरुप में आये और उस रूप में अति सुन्दर प्रकट हुए  । मैना ने अपने व्यवहार पर क्षमा मांगी और फिर शिव और शिव का विवाह संपन्न हुआ ।

नव दंपत्ति के दर्शनों को सोलह श्री नारियां आयीं : सरस्वती, लक्ष्मी सावित्री, गंगा, अदिति, लोपामुद्रा, अरुंधती, अहल्या, तुलसी, स्वाहा, रोहिणी, पृथ्वी, शतरूपा, संज्ञा और रति । फिर और भी अनेक दिव्य देवपत्नियाँ, नाग कन्याएं, मुनि कन्याएं आदि वहां आईं   । रति ने कामदेव की भस्म को शिव के आगे किया और विवाह के शुभ अवसर पर अपने पति को पुनर्जीवित करने को कहा, और बहुत रोने लगीं । उनके रोने से अन्य देवपत्नियाँ भी रोने लगीं और प्रभु की दयादृष्टि पड़ते ही भस्म से कामदेव अपने पूर्व रूप में आ अगये और रतिकाम ने शिव शिवा की मधुर स्तुतियाँ की । विदाई के समय माँ ने पुत्री को पतिव्रता नारी के धर्म समझाए । फिर गिरिजाकुमारी अपने पति के साथ हिमवान के देश से विदा हो गयीं ।

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