Wednesday, 8 April 2015

अद्वितीय शक्ति की प्रतीक शिव

By flipkart   Posted at  01:50   No comments

                         अद्वितीय शक्ति की प्रतीक शिव 

 

 

 

अद्वितीय शक्ति की प्रतीक शिव

 शिव के साथ जुड़ी हर चीज़ किसी न किसी अद्वितीय शक्ति की प्रतीक है, फिर चाहे वो त्रिशूल हो या डमरू। आइए उस शक्ति को पहचानकर अपने जीवन में धारण करें..त्रिनेत्र-मन की आंख
शिव के माथे पर उनकी तीसरी आंख है। शिव योग और ध्यान मे लीन रहते हैं। दो आंखों से साधारण दिखता है। शिव तीसरी आंख से असाधारण को देखते हैं और अपना संहार धर्म निभाते हैं। इसी तीसरी आंख से शिव ने कामदेव को जला कर उसके मूर्त रूप को ख़त्म किया था। तब से काम एक भाव है, देह नहीं। तीन आंखों के कारण शिव को ‘˜यंबक’ कहा जाता है। ˜यंबक तीन शक्तियों से संबंधित हैं।

आंखों में चंद्र की ज्योति रहती है। सृष्टि में तीन ज्योतियां हैं- सूर्य, चंद्र और अग्नि। दोनों आंखों में सूर्य और चंद्र की ज्योति बसती है, तो तीसरी आंख में अग्नि की। पहला नेत्र धरती है, दूसरा आकाश और तीसरा नेत्र है बुद्धि के देव सूर्य की ज्योति से प्राप्त ज्ञान-अग्नि का। यही ज्ञान जब खुला, तो कामदेव भस्म हुआ था। अर्थात्- जब आप अपने ज्ञान और विवेक की आंख खोलते हैं, तो कामदेव जैसी बुराई, लालच, भ्रम, अंधकार आदि से स्वयं को दूर कर सकते हैं।

इसके पीछे कथा भी है-

एक बार पार्वती ने शिव के साथ मज़ाक करने के लिए उनके पीछे से जाकर उनकी दोनों आंखें अपनी हथेलियों से मूंद दीं। इससे पूरे जगत में अंधकार फैल गया, क्योंकि शिव की एक आंख सूर्य है, दूसरी चंद्रमा। अंधकार से हाहाकार मच गया, तो शिव ने तुरंत अग्नि को अपने माथे से निकालकर पूरी दुनिया को रोशनी दे दी। लेकिन इस रोशनी से हिमालय जलने लगा। पार्वती घबरा गई और उन्होंने अपनी हथेली हटा ली। तब शिव ने मुस्कुराकर अपनी तीसरी आंख बंद की। शिवपुराण के अनुसार, यह मज़ाक करने से पहले स्वयं पार्वती को भी नहीं पता था कि शिव के तीन नेत्र हैं।

नीलकंठ-बुराई का ख़ात्मा

समुद्र-मंथन से निकले विष को शिव ने पिया और गले तक ले जाकर रोक दिया। इसलिए वह नीलकंठ कहलाए। शिव बुराई को पी जाते हैं, किंतु उसे अपने पेट में नहीं जाने देते। बुराई को ख़त्म करने का अर्थ शिव के इस नाम से यह मिलता है कि उसे मिटाओ, स्वीकार करो, लेकिन उसके असर को अपने ऊपर मत आने दो, रोक दो।

अर्धचंद्र-शीतलता का प्रतीक

शिव के माथे पर अर्धचंद्र विराजमान है, इसीलिए उन्हें चंद्रशेखर या शशिशेखर भी कहा जाता है। चंद्र शीतलता का प्रतीक है। उसे माथे पर धारण करना यानी दिमाग़ को ठंडा रखना है। इसके पीछे कथा है- समुद्र-मंथन से निकले विष को शिव ने पीकर गले में जमा कर लिया, तो विष के प्रभाव से वह क्रोध में उन्मत्त होने लगे। समुद्र-मंथन से ही चंद्रमा भी मूर्त-रूप में निकला। विष के प्रभाव को ख़त्म करने के लिए शिव ने शीतल चंद्र को माथे पर धारण कर लिया। इसी तरह हमें भी क्रोध आने पर दिमाग़ में शीतलता के चंद्र को रखना चाहिए।

जटाएं-अनंत विचार शिव विचार के देव हैं। उनके बारे में कथाएं है कि वह बिना विचार किए वरदान दे देते हैं और बाद में मुसीबत में पड़ जाते हैं, पर शिव के सारे वरदान विचार से पूर्ण हैं। जटाएं प्रतीक हैं सिर नामक वृक्ष से निकली शाखाओं की, जिनका कोई ओरछोर नहीं है। यानी शिव के विचारों का कोई अंत नहीं। गंगा को शिव अपनी जटाओं में धारण करते हैं। गंगा जब धरती पर आई, तो उसके तेज को कोई धारण नहीं कर सकता था। शिव ने उसे अपनी विचार रूपी जटाओं में धारण किया और जनसाधारण को सौंपते समय एक पतली धार में बदल दिया। शिव की जटाएं पांच से तेरह तक दिखती हैं, जो बंधी रहती हैं। संहार के समय ये खुलकर इतनी बड़ी हो जाती हैं कि तीनों लोकों को ढांप लें।

 

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