Monday, 6 April 2015

साँची का स्तूप

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                                         साँची का स्तूप





सांची भारत के मध्य प्रदेश राज्य के रायसेन जिले, में स्थित एक छोटा सा गांव है। यह भोपाल से ४६ कि.मी. पूर्वोत्तर में, तथा बेसनगर और विदिशा से १० कि.मी. की दूरी पर मध्य-प्रदेश के मध्य भाग में स्थित है। यहां कई बौद्ध स्मारक हैं, जो तीसरी शताब्दी ई.पू से बारहवीं शताब्दी के बीच के काल के हैं। सांची में रायसेन जिले की एक नगर पंचायत है। यहीं एक महान स्तूप स्थित है। इस स्तूप को घेरे हुए कई तोरण भी बने हैं। यह प्रेम, शांति, विश्वास और साहस के प्रतीक हैं। सांची का महान मुख्य स्तूप, मूलतः सम्राट अशोक महान ने तीसरी शती, ई.पू. में बनवाया था।इसके केन्द्र में एक अर्धगोलाकार ईंट निर्मित ढांचा था, जिसमें भगवान बुद्ध के कुछ अवशेष रखे थे। इसके शिखर पर स्मारक को दिये गये ऊंचे सम्मान का प्रतीक रूपी एक छत्र था।

यहाँ स्तूपों का निर्माण विभिन्न काल में चरणबद्ध तरीके से हुआ। सर्वप्रथम इसका निर्माण मौर्यकाल में अशोक के समय किया गया। अशोक ने ही विदिशा के स्थानीय निवासियों को स्तूप- निर्माण का आदेश दिया। उसके बाद सम्राट अग्निमित्र ने इसे सुरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

शुरु में चूँकि मूर्तिपूजा का प्रचलन नहीं था। भगवान बुद्ध को उनके पवित्र चिंहों बोधिवृक्ष, पदचिन्हों, कमल, धर्मचक्र आदि के माध्यम से इंगित करने की कोशिश की गई। शुंग काल में इनमें कई अवयवों को जोड़ा गया। ईंट निर्मित स्तूप को चारो तरफ से पत्थरों का आवरण दिया गया। चारों तरफ प्रदक्षिणापथ की व्यवस्था की गई। इसके अलावा मेधि, सोपान तथा शीर्ष में हर्मिका भी बनाये गये।

सातवाहन नरेशों के शासनकाल में शिल्पकला की दिशा में विशेष ध्यान दिया। उनके समय में ही चारों दिशाओं में तोरण बनाये गये, जिसपर कई तरह की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण की गई। इसके बाद भी गुप्त सम्राटों ने भी इसे सजाने- संवारने में किसी भी प्रकार का समझौता नहीं किया। साँची की इन स्तूपों से प्राप्त अधिकांश प्रतिमाएँ व मंदिर इसी काल में बनाये गये। गुप्तकाल के पश्चात् भिक्षुओं के निवास के लिए कक्ष बनाये गये। अब ये खंडहर के रुप में विद्यमान हैं। इनका निर्माण ८ वीं सदी से ११ वीं सदी के बीच का माना जाता है। इस काल में मिहिर भोज सन् ९७४- ९९९ तथा भोज सन् ९९८- १०२३ की भी स्तूप को सुधारने- सँवारने में उल्लेखनीय भूमिका रही।

सबसे पुराना हिस्सा, संभवतः बड़े स्तूप का दक्षिणी द्वार है। इसमें बुद्ध के जन्म को दिखाया गया है। यहीं अशोक का स्तंभ भी टूटी हुई अवस्था में विद्यमान है। कहा जाता है कि यह स्तंभ चुनार से गंगा, यमुना तथा वेत्रवती नदियों को नावों से पार कराकर यहाँ तक लाया गया था। दूसरा स्तंभ शुंग काल का है। तीसरा तथा चौथा स्तंभ गुप्तकालीन है। एक अन्य स्तंभ का काल- निर्धारण नहीं किया जा सका है। मुख्य स्तूप के उत्तर ही तरफ की तोरण द्वार सबसे अधिक भव्य है। इसे धम्मगिरि नामक भिक्षु ने दानस्वरुप बनवाया था। दक्षिणी तोरण पर मिले अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि इसका अलंकरण विदिशा के ही हाथी दाँत पर पच्चीकारी करने वाले कारीगर दानकर्त्ताओं ने बनाया था। पूर्वी द्वार में बुद्ध के सात अवतारों को दिखाया गया है।

स्तूप के तोरण द्वारों पर उत्कीर्ण आकृतियाँ, भारत में पत्थर पर उत्कीर्ण प्रयोगों का सबसे अच्छा उदाहरण है। शिल्पकारों ने इन पर बुद्ध के पूर्व जीवन की कहानियों पर आधारित विभिन्न जातक कथाओं का अंकन किया है। बुद्ध के पवित्र चिंहों के अलावा पशु, पक्षी, मानव तथा राक्षसों की भी बेजोड़ तरीके से उकेड़ा गया है। इन उत्कीणाç में लक्ष्मी, इंद्र आदि कई वैदिक देवताओं का भी समावेश है।

दूसरा स्तूप पहाड़ी के किनारे की तरफ स्थित है। चारों तरफ बने पत्थर की घेराबंदी इस स्तूप की अपनी खासियत है। इसे ई. पू. २ री सदी में शुंगों द्वारा जोड़ा गया था। तोरण सिर्फ दक्षिण की तरफ है। वेदिका का विशेष अलंकरण किया गया है।

स्तूप संख्या तीन मुख्य स्तूप ( स्तूप संख्या - १ ) के निकट ही है। इसी स्तूप में सारिपुत्र तथा महामोग्लायन की धातुएँ रखी गई है।

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