मन और बुद्धि के स्तर की शुद्धि
" मन मेल ओर तन को धोये "....ये तो सर्व विदित हे | हमारी कथनी ओर करनी मे हमेशा थोड फ़र्क तो होता हि हे | हम चाहकर भी हमेश इसमे संतुलन नहि रख पाते | याहा बात शुद्धि की करनी हे ...मन और तन अभिन्न हे | या यू कहे तो भी अतिउक्ति नहीं की तन तो केवल मन का प्रतिबिम्ब भर हे |हमारे मन के संकल्पों की पूर्ति हम तन के माध्यम से करते हे | इसकी शुद्धि और पवित्रता को ऋषि परंपरा मे अनिवार्य माना गया |
हमारे प्राची महाऋषि मनु ने मनुस्मृति नामक ग्रंथ में मनुष्य के आचरण के संबंध में बहुत सी बातें बतायी हैं, सामाजिक जीवन में जिनके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता | ग्रंथ के पांचवें अध्याय में शुचितापूर्ण आचरण का अर्थ स्पष्ट किया गया है । ग्रंथकार के अनुसार बाह्य दिखावटी स्वच्छता से कहीं अधिक महत्त्व आंतरिक अर्थात् मन और बुद्धि के स्तर की स्वच्छता का है । अध्याय के 4 श्लोक मुझे विशेष रूप से अर्थपूर्ण लगे । मैं अधोलिखित उन श्लोकों का उल्लेख कर रहा हूं । (मनुस्मृति, पञ्चम अध्याय, श्लोक 106-9)
सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम् ।
योऽर्थे शुचिर्हि सः शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः ॥106॥
(सर्वेषाम् एव शौचानाम् अर्थ-शौचं परं स्मृतम्, यः अर्थे शुचिः हि सः शुचिः न मृद्-वारि-शुचिः शुचिः ।)
सभी शौचों, शुचिताओं, यानी शुद्धियों में धन से संबद्ध शुचिता ही वास्तविक शुद्धि है । मात्र मृदा-जल (मिट्टी एवं पानी) के माध्यम से शुद्धि प्राप्त कर लेने से कोई वास्तविक अर्थ में शुद्ध नहीं हो जाता ।
मनुष्य की अशुद्धि के कई पहलू होते हैं । एक तो सामान्य दैहिक स्तर की गंदगी होती है, जिसे हम मिट्टी, राख, अथवा साबुन जैसे पदार्थों एवं पानी द्वारा स्वच्छ करते हैं । उक्त नीति वचन का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार की शुचिता केवल सतही है । ऐसी शुद्धि अवश्य वांछित है किंतु इससे अधिक महत्त्व की बात है धन संबंधी शुचिता । वही व्यक्ति वस्तुतः शुद्धिप्राप्त है जिसने धनार्जन में शुचिता बरती हो । अर्थात् जिसने औरों को धोखा देकर, उन्हें लूटकर, उनसे घूस लेकर अथवा ऐसे ही उल्टे-सीधे तरीके से धनसंग्रह न किया हो ।
क्षान्त्या शुद्ध्यन्ति विद्वांसो दानेनाकार्यकारिणः ।
प्रछन्नपापा जप्येन तपसा वेदवित्तमाः ॥107॥
(क्षान्त्या शुद्ध्यन्ति विद्वांसः दानेन अकार्य-कारिणः प्रछन्न-पापा जप्येन तपसा वेद-वित्तमाः ।)
विद्वज्जन क्षमा से और अकरणीय कार्य कर चुके व्यक्ति दान से शुद्ध होते हैं । छिपे तौर पर पापकर्म कर चुके व्यक्ति की शुद्धि मंत्रों के जप से एवं वेदाध्ययनरतों का तप से संभव होती है ।
मुझे लगता है कि इस वचन के अनुसार क्रोध एवं द्वेष जैसे मनोभाव विद्वानों की शुचिता समाप्त कर देते हैं । इनसे मुक्त होने पर ही विद्वद्गण की शुद्धि कही जाएगी । क्षमादान जैसे गुणों को अपनाकर वे शुद्धि प्राप्त करते हैं । इसी प्रकार अनुचित कार्य करने पर दान करके व्यक्ति अपने को शुद्ध करता है । धर्म की दृष्टि से पाप समझे जाने वाले कर्म करने वाले के लिए शास्त्रों में वर्णित मंत्रों का जाप शुद्धि के साधन होते हैं और वेदपाठ जैसे कार्य में लगे व्यक्ति के दोषों के मुक्ति का मार्ग तप में निहित रहता है । इन सब बातों में प्रायश्चित्त की भावना का होना आवश्यक है । ऐसे कार्यों का संपादन मात्र सतही तौर पर किया जाना शुद्धि नहीं दे सकता है ऐसा मेरा मत है । मन में स्वयं को दोषमुक्त करने का संकल्प ही शुद्धि प्रदान करेगा ।
मृत्तोयैः शुद्ध्यते शोध्यं नदी वेगेन शुद्ध्यति ।
रजसा स्त्री मनोदुष्टा सन्न्यासेन द्विजोत्तमः ॥108॥
(मृत्-तोयैः शुद्ध्यते शोध्यं नदी वेगेन शुद्ध्यति रजसा स्त्री मनः-दुष्टा सन्न्यासेन द्विज-उत्तमः ।)
पदार्थगत भौतिक अस्वच्छता स्वच्छ मिट्टी एवं जल के प्रयोग से दूर होती है और नदी अपने प्रवाह से ही शुद्ध हो जाती है । मन में कुविचार रखने वाली स्त्री की शुद्धि रजस्राव में निहित रहती है तो ब्राह्मण की शुद्धि संन्यास में निहित रहती है ।
पदार्थगत गंदगी (यथा भोजन की जूठन, कीचड़, विष्टा आदि) को मिट्टी (स्वच्छ मिट्टी, राख, साबुन आदि) एवं जल के माध्यम से साफ की जाती है । नदी की गंदगी उसके प्रवाह से स्वयं ही साफ हो जाती है । उसकी शुद्धि के लिए उसके प्रवाह को न रोकना ही पर्याप्त है । उसका थमा हुआ जल यथावत् अस्वच्छ बना रहता है । मन में परपुरुषों से संबंध पालने वाली दूषित विचारों वाली स्त्री की शुद्धि उसके मासिक रजस्राव के साथ होती है यह मान्यता यहां पर उल्लिखित है । इस वचन का ठीक-ठीक तात्पर्य मेरे समझ में नहीं आ सका है । कुछ भी हो इसी प्रकार की बात पुरुषों के मामले में भी होनी चाहिए । और अंत में यह कहा गया है कि उत्तम ब्राह्मण संन्यास के माध्यम से शुचिता प्राप्त करता है । शास्त्रीय मत के अनुसार संन्यासव्रत ब्राह्मण के जीवन का अंतिम कर्तव्य है । मेरे मत में संन्यास का अर्थ भगवा वस्त्र धारण करना नहीं है, बल्कि लोभ-लालच एवं संग्रह की भावना को त्यागना है । व्यक्ति को अपने घर-परिवार के दायित्व को पूर्ण करने के बाद त्याग का संकल्प ले लेना चाहिए; उसी में उसका शौच निहित है ।
अद्भिर्गात्राणि शुद्ध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति ।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्ध्यति ॥109॥
(अद्भिः गात्राणि शुद्ध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति विद्या-तपोभ्यां भूत-आत्मा बुद्धिः ज्ञानेन शुद्ध्यति ।)
शरीर की शुद्धि जल से होती है । मन की शुद्धि सत्य भाषण से होती है । जीवात्मा की शुचिता के मार्ग विद्या और तप हैं । और बुद्धि की स्वच्छता ज्ञानार्जन से होती है ।
शारीरिक गंदगी साबुन-शैंपू प्रयोग में लेते हुए जल से धोकर छुड़ाई जाती है । इस स्वच्छता को पाने के लिए सभी लोग यत्नशील रहते हैं । किंतु यह पर्याप्त नहीं है । मन में सद्विचार पालने और सत्य का उद्घाटन करके मनुष्य मानसिक शुचिता प्राप्त करता है । सफल परलोक पाने के लिए जीवात्मा को शौचशील होना चाहिए और उसकी शुचिता विद्यार्जन एवं तपश्चर्या से संभव होती है । (मान्यता यह है कि देहावसान पर प्राणी स्थूल शरीर छोड़ता है और उसका सूक्ष्म शरीर प्रेतात्मा के रूप में विचरण करता रहता है । यही प्रेतात्मा कालांतर में नया देह धारण करता है ।) और मनुष्य की बुद्धि का शोधन ज्ञान से होती है । व्यक्ति की बुद्धि उचित अथवा अनुचित, दोनों ही, मार्गों पर अग्रसर हो सकती है । समुचित ज्ञान द्वारा मनुष्य सही दिशा में अपनी बुद्धि लगा सकता है । यही उसकी शुचिता का अर्थ लिया जाना चाहिए है ।
अनेको प्रमाण हे ..फिर भी हम हमेशा इस अहेम विषय में उदासीन हे ..??? बाकी तो आप स्वयं ज्ञानीजन हो .......जय हो .
" मन मेल ओर तन को धोये "....ये तो सर्व विदित हे | हमारी कथनी ओर करनी मे हमेशा थोड फ़र्क तो होता हि हे | हम चाहकर भी हमेश इसमे संतुलन नहि रख पाते | याहा बात शुद्धि की करनी हे ...मन और तन अभिन्न हे | या यू कहे तो भी अतिउक्ति नहीं की तन तो केवल मन का प्रतिबिम्ब भर हे |हमारे मन के संकल्पों की पूर्ति हम तन के माध्यम से करते हे | इसकी शुद्धि और पवित्रता को ऋषि परंपरा मे अनिवार्य माना गया |
हमारे प्राची महाऋषि मनु ने मनुस्मृति नामक ग्रंथ में मनुष्य के आचरण के संबंध में बहुत सी बातें बतायी हैं, सामाजिक जीवन में जिनके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता | ग्रंथ के पांचवें अध्याय में शुचितापूर्ण आचरण का अर्थ स्पष्ट किया गया है । ग्रंथकार के अनुसार बाह्य दिखावटी स्वच्छता से कहीं अधिक महत्त्व आंतरिक अर्थात् मन और बुद्धि के स्तर की स्वच्छता का है । अध्याय के 4 श्लोक मुझे विशेष रूप से अर्थपूर्ण लगे । मैं अधोलिखित उन श्लोकों का उल्लेख कर रहा हूं । (मनुस्मृति, पञ्चम अध्याय, श्लोक 106-9)
सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम् ।
योऽर्थे शुचिर्हि सः शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः ॥106॥
(सर्वेषाम् एव शौचानाम् अर्थ-शौचं परं स्मृतम्, यः अर्थे शुचिः हि सः शुचिः न मृद्-वारि-शुचिः शुचिः ।)
सभी शौचों, शुचिताओं, यानी शुद्धियों में धन से संबद्ध शुचिता ही वास्तविक शुद्धि है । मात्र मृदा-जल (मिट्टी एवं पानी) के माध्यम से शुद्धि प्राप्त कर लेने से कोई वास्तविक अर्थ में शुद्ध नहीं हो जाता ।
मनुष्य की अशुद्धि के कई पहलू होते हैं । एक तो सामान्य दैहिक स्तर की गंदगी होती है, जिसे हम मिट्टी, राख, अथवा साबुन जैसे पदार्थों एवं पानी द्वारा स्वच्छ करते हैं । उक्त नीति वचन का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार की शुचिता केवल सतही है । ऐसी शुद्धि अवश्य वांछित है किंतु इससे अधिक महत्त्व की बात है धन संबंधी शुचिता । वही व्यक्ति वस्तुतः शुद्धिप्राप्त है जिसने धनार्जन में शुचिता बरती हो । अर्थात् जिसने औरों को धोखा देकर, उन्हें लूटकर, उनसे घूस लेकर अथवा ऐसे ही उल्टे-सीधे तरीके से धनसंग्रह न किया हो ।
क्षान्त्या शुद्ध्यन्ति विद्वांसो दानेनाकार्यकारिणः ।
प्रछन्नपापा जप्येन तपसा वेदवित्तमाः ॥107॥
(क्षान्त्या शुद्ध्यन्ति विद्वांसः दानेन अकार्य-कारिणः प्रछन्न-पापा जप्येन तपसा वेद-वित्तमाः ।)
विद्वज्जन क्षमा से और अकरणीय कार्य कर चुके व्यक्ति दान से शुद्ध होते हैं । छिपे तौर पर पापकर्म कर चुके व्यक्ति की शुद्धि मंत्रों के जप से एवं वेदाध्ययनरतों का तप से संभव होती है ।
मुझे लगता है कि इस वचन के अनुसार क्रोध एवं द्वेष जैसे मनोभाव विद्वानों की शुचिता समाप्त कर देते हैं । इनसे मुक्त होने पर ही विद्वद्गण की शुद्धि कही जाएगी । क्षमादान जैसे गुणों को अपनाकर वे शुद्धि प्राप्त करते हैं । इसी प्रकार अनुचित कार्य करने पर दान करके व्यक्ति अपने को शुद्ध करता है । धर्म की दृष्टि से पाप समझे जाने वाले कर्म करने वाले के लिए शास्त्रों में वर्णित मंत्रों का जाप शुद्धि के साधन होते हैं और वेदपाठ जैसे कार्य में लगे व्यक्ति के दोषों के मुक्ति का मार्ग तप में निहित रहता है । इन सब बातों में प्रायश्चित्त की भावना का होना आवश्यक है । ऐसे कार्यों का संपादन मात्र सतही तौर पर किया जाना शुद्धि नहीं दे सकता है ऐसा मेरा मत है । मन में स्वयं को दोषमुक्त करने का संकल्प ही शुद्धि प्रदान करेगा ।
मृत्तोयैः शुद्ध्यते शोध्यं नदी वेगेन शुद्ध्यति ।
रजसा स्त्री मनोदुष्टा सन्न्यासेन द्विजोत्तमः ॥108॥
(मृत्-तोयैः शुद्ध्यते शोध्यं नदी वेगेन शुद्ध्यति रजसा स्त्री मनः-दुष्टा सन्न्यासेन द्विज-उत्तमः ।)
पदार्थगत भौतिक अस्वच्छता स्वच्छ मिट्टी एवं जल के प्रयोग से दूर होती है और नदी अपने प्रवाह से ही शुद्ध हो जाती है । मन में कुविचार रखने वाली स्त्री की शुद्धि रजस्राव में निहित रहती है तो ब्राह्मण की शुद्धि संन्यास में निहित रहती है ।
पदार्थगत गंदगी (यथा भोजन की जूठन, कीचड़, विष्टा आदि) को मिट्टी (स्वच्छ मिट्टी, राख, साबुन आदि) एवं जल के माध्यम से साफ की जाती है । नदी की गंदगी उसके प्रवाह से स्वयं ही साफ हो जाती है । उसकी शुद्धि के लिए उसके प्रवाह को न रोकना ही पर्याप्त है । उसका थमा हुआ जल यथावत् अस्वच्छ बना रहता है । मन में परपुरुषों से संबंध पालने वाली दूषित विचारों वाली स्त्री की शुद्धि उसके मासिक रजस्राव के साथ होती है यह मान्यता यहां पर उल्लिखित है । इस वचन का ठीक-ठीक तात्पर्य मेरे समझ में नहीं आ सका है । कुछ भी हो इसी प्रकार की बात पुरुषों के मामले में भी होनी चाहिए । और अंत में यह कहा गया है कि उत्तम ब्राह्मण संन्यास के माध्यम से शुचिता प्राप्त करता है । शास्त्रीय मत के अनुसार संन्यासव्रत ब्राह्मण के जीवन का अंतिम कर्तव्य है । मेरे मत में संन्यास का अर्थ भगवा वस्त्र धारण करना नहीं है, बल्कि लोभ-लालच एवं संग्रह की भावना को त्यागना है । व्यक्ति को अपने घर-परिवार के दायित्व को पूर्ण करने के बाद त्याग का संकल्प ले लेना चाहिए; उसी में उसका शौच निहित है ।
अद्भिर्गात्राणि शुद्ध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति ।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्ध्यति ॥109॥
(अद्भिः गात्राणि शुद्ध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति विद्या-तपोभ्यां भूत-आत्मा बुद्धिः ज्ञानेन शुद्ध्यति ।)
शरीर की शुद्धि जल से होती है । मन की शुद्धि सत्य भाषण से होती है । जीवात्मा की शुचिता के मार्ग विद्या और तप हैं । और बुद्धि की स्वच्छता ज्ञानार्जन से होती है ।
शारीरिक गंदगी साबुन-शैंपू प्रयोग में लेते हुए जल से धोकर छुड़ाई जाती है । इस स्वच्छता को पाने के लिए सभी लोग यत्नशील रहते हैं । किंतु यह पर्याप्त नहीं है । मन में सद्विचार पालने और सत्य का उद्घाटन करके मनुष्य मानसिक शुचिता प्राप्त करता है । सफल परलोक पाने के लिए जीवात्मा को शौचशील होना चाहिए और उसकी शुचिता विद्यार्जन एवं तपश्चर्या से संभव होती है । (मान्यता यह है कि देहावसान पर प्राणी स्थूल शरीर छोड़ता है और उसका सूक्ष्म शरीर प्रेतात्मा के रूप में विचरण करता रहता है । यही प्रेतात्मा कालांतर में नया देह धारण करता है ।) और मनुष्य की बुद्धि का शोधन ज्ञान से होती है । व्यक्ति की बुद्धि उचित अथवा अनुचित, दोनों ही, मार्गों पर अग्रसर हो सकती है । समुचित ज्ञान द्वारा मनुष्य सही दिशा में अपनी बुद्धि लगा सकता है । यही उसकी शुचिता का अर्थ लिया जाना चाहिए है ।
अनेको प्रमाण हे ..फिर भी हम हमेशा इस अहेम विषय में उदासीन हे ..??? बाकी तो आप स्वयं ज्ञानीजन हो .......जय हो .
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