Saturday, 11 April 2015

कुंभ मेले का महत्व और इतिहास

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                        कुंभ मेले का महत्व और इतिहास

 

प्रयागराज में आयोजित धार्मिक मेले का अर्थ ‘कुंभ मेला’ है।  ‘कुंभ मेले’ की परंपरा का इतिहास सिंधु घाटी की संस्कृति से भी पुराना है। प्रयागराज एक तीर्थ स्थान है जहाँ 3 नदियों क्रमश: गंगा, यमुना और सरस्वती का  एक पवित्र संगम है,जिसे  ‘त्रिवेणी संगम के रूप में भी जाना जाता है। वैदिक काल से, ‘त्रिवेणी संगम’ हिंदुओं के एक पवित्र स्थान के रूप में जाना जाता है। हर साल के हिंदू महीने ‘माघ’ में यहाँ  इस पवित्र त्रिवेणी संगम पर एक मेला आयोजित किया जाता है  जो ‘माघ मेला ‘के रूप में  जाना जाता है और हर 12 वें वर्ष में ‘ कुंभ मेला और हर 6 वर्ष में  ‘अर्ध कुंभ ‘ मेले का  यहां आयोजन किया जाता है। यह कुंभ पर्व (अवधि)  हर वर्ष 12 में  ‘हरिद्वार , प्रयाग , उज्जैन और नासिक  में आयोजित किया  जाता है जो पुरे विश्व में विख्यात है। 

अनुक्रमणिका
1.  कुंभ मेला: हजारों वर्षों से चली आ रही परंपरा।
2. जगतगुरू आदि शंकराचार्य ने  ‘कुंभ मेला’ वैदिक रूप में दिया।
3. ‘कुंभ’ शब्द की परिभाषा।
4. ‘कुंभ’ के धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व।
5. ‘पुराण’ के अनुसार ‘कुंभ’ का महत्व।
6. तीर्थ स्थानों के विभिन्न लाभों और महत्व को ‘वेद’ में भी पढ़ सकते हैं।
 7. भक्तों को चार मुख्य ‘पर्वों ‘ का लाभ यहाँ  प्रयागराज के ‘कुंभ मेले’ में मिलता है।
                                                                                             
1.  कुंभ मेला: हजारों वर्षों से चली आ रही परंपरा।
वर्तमान में  ‘कुंभ मेला’ संसार में सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन है। यह बता पाना कठिन है कि वास्तव में यह कब प्रारम्भ हुआ था। सन्यासी ‘माघ महीने’ की पूर्णिमा के दिन स्नान के लिए यहां इकट्ठा होते हैं। पवित्र ग्रंथों में भी ‘कुंभ मेले’ का उल्लेख मिलता है। ‘नारद पुराण’ में ‘कुंभ मेला’, बहुत अच्छा बताया गया है।
क  . कुछ विद्वानों के अनुसार यह मेला  3464 ई.पू. आरम्भ हुआ था अर्थात हड़प्पा और मोहन जोदड़ो की संस्कृति के 1000 साल पहले।
ख .  2382  ईसा पूर्व में ‘महर्षि विश्वामित्र’ (2) ने  ‘माघ पूर्णिमा’ पर पवित्र स्नान करने के महत्व को बताया है।
ग .   1302 ईसा पूर्व में ‘महर्षि ज्योतिष ‘ ने  ‘माघ पूर्णिमा’ पर पवित्र स्नान करने के महत्व को बताया है।
घ . चीनी यात्री ‘ह्वेन सांग’ ने  अपनी पुस्तक में कुंभ मेला को वर्णित किया  है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘भारतयात्रा’ में प्रयाग में हिंदुओं के मेले का उल्लेख किया है जो उन्होंने सम्राट हर्षवर्धन के राज्यकाल में 629 ई.पू. में की थी।
                                                                                 
2. जगतगुरू आदि शंकराचार्य ने  ‘कुंभ मेला’ वैदिक रूप में दिया।
जगतगुरू आदि शंकराचार्य ने भारतीय त्योहारों और विभिन्न संप्रदायों से संत और धार्मिक नेताओं को तथा साधु-संत और जनसाधारण को एकसाथ किसी उत्सव में इकट्ठा होने के लिए प्रेरित किया। उनकी इस प्रेरणा से देश के विभिन्न भागों से विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के धार्मिक गुरु , सन्यासीओं ने इस धार्मिक आयोजन में भाग लेना आरम्भ कर दिया। यह वैदिक कृत्य देकर आदि शंकराचार्य ने साधु , संत और सिद्धोंजनों को प्रतिष्ठा दी और सम्मानित किया इसलिए  ‘कुंभ मेला’ में धार्मिक संतों की भागीदारी में वृद्धि हुई। वर्ष 1515 में श्री चैतन्य महाप्रभु बंगाल से यहां आए। इस मेले में जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म के अनुयायी भी भाग लेते हैं। यहां तक ​​कि आजकल तो विदेशी नागरिक भी बहुत उत्साह और हर्षौल्लास के साथ इस मेले में भाग लेतें हैं।
                                                                                                       
3. ‘कुंभ’ शब्द की परिभाषा
‘कुंभ’ शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है एक ऐसा ‘कलश’ जो शुद्धता और पवित्रता का प्रतीक है। चूंकि ‘कलश’ शुद्धता का प्रतीक होता है इसलिए इसे ‘मंगल कलश’ भी कहा जाता है। ज्योतिष में ‘कुंभ’ शब्द एक राशि के लिए प्रयोग किया जाता है। कुंभ-पर्व के संदर्भ में ज्योतिष का अर्थ भी स्वीकार लिया गया है।
                                                                                               
4. ‘कुंभ’ के धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व
‘कुंभ’ सागर, पृथ्वी, और सभी 4 ‘वेद’ का एक निवास है: साधु, संतों, ब्राह्मणों और देवताओं ने इसे प्राकृतिक संपदा, भौतिक समृद्धि, श्री और लक्ष्मी की कृपा तथा ज्ञान और विज्ञान के भंडारण की महानता के एक प्रतीक के रूप में सम्मानित किया। विज्ञान के अनुसार ‘कुंभ’ देवताओं का निवास स्थान है।  ‘कुंभ’ के मुखपटल में भगवान् श्री विष्णु का निवास है , गर्दन(मध्य भाग) में भगवान् श्री महादेव की और इसके आधार में भगवान् श्री ब्रह्मदेव का निवास है। यह भी कहा गया है कि कुंभ के केंद्र में सभी देवताओं, सभी समुद्र, पर्वत, पृथ्वी और 4′ वेदों ‘ का निवास है इसलिए ‘कुंभ’ का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है।
                                                                                                 

5. ‘पुराण’ के अनुसार ‘कुंभ’ का महत्व
‘समुद्र मंथन’ के समय देवताओं और असुरों के बीच ‘अमृत-कलश’ को प्राप्त करने के लिए युद्ध लड़ा गया था। ‘पुराणों’ में कुंभ’ से संबंधित ‘देवताओं’ और ‘असुरों’ के बीच युद्ध का इतिहास में छिपा है। समुद्र मंथन’ से जो 14 बहुमूल्य वस्तुएँ प्राप्त हुई थीं उनमें अमृत युक्त “कुंभ-कलश” भी एक है। उन दोनों के बीच युद्ध लड़ा गया था इस ‘कुंभ’ को प्राप्त करने के लिए अत: ”कुंभ-पर्व” में इस ‘कुंभ’ को भी याद किया जाता है।

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